शाम ढल कर ,
आफ़ताब को किनारा किये,
पर्दो की सँकरी गलियो से,
सर्द झोंको के छींटे उड़ाये उड़ाए जाती है ।
बिन झांके
और ना दंभी किवाड़ सरकाये।
ऎसे मौके,
मुझे दो वक़्त की सोच देते है।
ऎसी शांति,
बेहद क्षीण, कर्कश, बेमतलब, उधमी, बेसीदे
लेकिन बेमिसाल ख्यालो को,
पलभर के लिए ही सही,
पर जरुरी साँसे लेने देती है।
किस्मत के इन छोटे,
इन अभागे,
इन बदनसीबो
की एक काबिलियत फिर भी कमाल है!
के उन चंद पलो में भी
वे मुझे मजबूर किये जाते है।
और अपनी जिजविषा से,
इस ठहरे हुए पानी से,
पहला बहाव बनाते है।
आफ़ताब को किनारा किये,
पर्दो की सँकरी गलियो से,
सर्द झोंको के छींटे उड़ाये उड़ाए जाती है ।
बिन झांके
और ना दंभी किवाड़ सरकाये।
ऎसे मौके,
मुझे दो वक़्त की सोच देते है।
ऎसी शांति,
बेहद क्षीण, कर्कश, बेमतलब, उधमी, बेसीदे
लेकिन बेमिसाल ख्यालो को,
पलभर के लिए ही सही,
पर जरुरी साँसे लेने देती है।
किस्मत के इन छोटे,
इन अभागे,
इन बदनसीबो
की एक काबिलियत फिर भी कमाल है!
के उन चंद पलो में भी
वे मुझे मजबूर किये जाते है।
और अपनी जिजविषा से,
इस ठहरे हुए पानी से,
पहला बहाव बनाते है।
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ReplyDeleteKya baat hai shayaar baabu!!
ReplyDelete👌
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